उत्तराखंड और चार धाम यात्रा: विकास का रोड मैप और पर्यावरण संकट की आहट

पर्यावरणीय और प्राकृतिक आपदाओं की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तराखंड के चार धामों को जोड़ने वाले ऑल वेदर मार्ग के चौड़ीकरण पर रोक लगाए जाने के बाद करोड़ों हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था के केंद्र इन हिमालयी धामों और उनकी यात्रा की सुरक्षा का सवाल फिर खड़ा हो गया है।

भू-गर्भ भौतिकी विशेषज्ञों के साथ ही पर्यावरणविदों को आशंका है कि चारधाम मार्ग पर पहाड़ों और पेड़ों के बेतहाशा कटान तथा मलबे का समुचित निस्तारण न होने से 2013 की केदारनाथ जैसी आपदा की पुनरावृत्ति हो सकती है। विशेषज्ञों ने बदरीनाथ की कायालट करने के लिए बनाए गए मास्टर प्लान पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।

सरकारी विशेषज्ञों पर कोर्ट का भी भरोसा नहीं

सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तराखंड में चारधाम ऑल वेदर रोड के चौड़ीकरण के लिए किए जा रहे पहाड़ों के कटान के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन करने के लिए गठित 21 सदस्यीय विशेषज्ञ कमेटी के बहुसंख्यक सरकारी विशेषज्ञों की राय को दरकिनार कर अल्पसंख्यक गैर सरकारी विशेषज्ञों की चिंताओं को अधिक महत्व दिए जाने से सवाल उठने लगे हैं कि आखिर केदारनाथ जैसी आपदा को तथा इसरो द्वारा तैयार कराए गए उत्तराखंड के लैंडस्लाइड जोनेशन मैप (भू-स्खलन संवेदनशील क्षेत्रों का चिन्हीकरण) का ध्यान क्यों नहीं रखा गया?

पर्यावरणविदों को दैवी आपदाओं की आशंका

चिपको आंदोलन के प्रणेता पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारत सरकार की चारधाम मार्ग की चौड़ाई बढ़ाने की मांग को ठुकराए जाने का स्वागत करते हैं, लेकिन साथ ही वह अब तक पहुंचाए गये पर्यावरणीय नुकसान से भी काफी चिंतित हैं।
भट्ट का कहना है कि पहाड़ों की बेतहासा कटिंग से कई सुप्त भूस्खलन भी सक्रिय हो गए हैं और बाकी भी भविष्य में सक्रिय हो सकते हैं। 
हिमालय की अत्यंत संवेदनशीलता को अनुभव करते हुए 2001 में इसरो ने कराड़ों रुपए खर्च कर देश के 12 विशेषज्ञ संस्थानों के 54 वैज्ञानिकों से उत्तराखंड का ‘लैंड स्लाइड जोनेशन एटलस’ बनाया था जिसमें इसी चारधाम मार्ग पर सेकड़ों की संख्या में सुप्त और सक्रिय भूस्खलन चिंहित कर उनका उल्लेख किया गया था। लेकिन इस रिपोर्ट पर गौर नहीं किया गया। अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ काटने के साथ ही मलबा निस्तारण के लिए डंपिंग जोन भी गलत बने हैं।

अगर वर्ष 2013 की जैसी अतिवृष्टि हो गई तो पहाड़ों में पुनः केदारनाथ आपदा की जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। वह हैरानी जताते हैं कि सरकार ने पहले पहाड़ काट डाले और बाद में विशेषज्ञों से अध्ययन कराया गया।

भूस्खलनों की रिपोर्ट देखी ही नहीं

चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर कैबिनेट सचिव की पहल पर इसरो ने सन् 2000 में वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान, भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, भौतिकी प्रयोगशाला हैदराबाद, दूर संवेदी उपग्रह संस्थान आदि एक दर्जन वैज्ञानिक संस्थानों के 54 वैज्ञानिकों ने हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्य केंद्रीय भ्रंश के आसपास के क्षेत्रों का लैंड स्लाइड जोनेशन मैप तैयार किया था।

उसके बाद इसरो ने ऋषिकेश से बदरीनाथ, ऋषिकेश से गंगोत्री, रुद्रप्रयाग से केदारनाथ और टनकपुर से माल्पा ट्रैक को आधार मानकर जोखिम वाले क्षेत्र चिंहित कर दूसरा नक्शा तैयार किया था। इसी प्रकार संस्थान ने उत्तराखंड की अलकनंदा घाटी का भी अलग से अध्ययन किया था।

ये सभी अध्ययन 2002 तक पूरे हो गए थे और इन सबकी रिपोर्ट उत्तराखंड के साथ ही हिमाचल प्रदेश की सरकार को भी इसरो द्वारा उपलब्ध कराई गई थी, मगर आज इन रिपोर्टों का कहीं कोई अता-पता नहीं है। जबकि चारधाम परियोजना के लिए इस रिपोर्ट का अध्ययन अत्यंत जरूरी था।

बदरीनाथ मार्ग पर ही सेकड़ों भूस्खलन

इसरो द्वारा तैयार लैंड स्लाइड जोनेशन मैप में ऋषिकेश से लेकर बदरीनाथ के बीच 110 स्थान या बस्तियां भूस्खलन के खतरे में और 441.57 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित बताया गया था। इसी प्रकार केदारनाथ क्षेत्र में 165 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूस्खलन खतरे की जद में बताया गया था।

इस संयुक्त वैज्ञानिक अध्ययन में रुद्रप्रयाग से लेकर केदारनाथ तक 65 स्थानों को संवेदनशील बताया गया था। 2013 कि केदारनाथ आपदा के बाद यह क्षेत्र और भी अधिक संवेदनशील हो गया है।

वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान का हवाला देते हुए इसरो की रिपोर्ट में ऋषिकेश के आसपास के 89.22 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील बताया गया। इसी तरह देवप्रयाग के निकट 15 वर्ग कि.मी क्षेत्र को अति संवेदनशील माना गया है।

श्रीनगर गढ़वाल के निकट 33 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील तथा 8 वर्ग कि.मी क्षेत्र को अति सेवेदनशील बताया गया है। इस साझा अध्ययन में सी.बी.आर. आइ. रुड़की की भी मदद ली गई है। इन संस्थानों के अध्ययनों का हवाला देते हुए रुद्रप्रयाग से लेकर बदरीनाथ तक सड़क किनारे की 52 बस्तियों को तथा टिहरी से गोमुख तक 365.29 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील और 32.075 वर्ग कि.मी. को अति संवेदनशील बताया गया है।

भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के डॅा प्रकाश चन्द्र की एक अध्ययन रिपोर्ट में डाकपत्थर से लेकर यमुनोत्री तक के 144 कि.मी. क्षेत्र में 137 भूस्खलन संवेदनशील स्पाट बताए गए हैं। अगर इस रिपोर्ट का अध्ययन किया जाता तो संभवतः चारधाम ऑल वेदर रोड निर्माण में पहाडों को बेरहमी से नहीं काटा जाता।

चारधाम मार्ग के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब बदरीनाथ धाम के नवीनीकरण का मामला भी चर्चाओं में आ गया है। इस मामले में भी विशेषज्ञों की राय लिए बिना धाम का मास्टर प्लान बना लिया गया है। जबकि 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद इन हिमालयी तीर्थों में प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ न किए जाने की अपेक्षा की जा रही थी।

इससे पहले 1974 में बिड़ला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट द्वारा बदरीनाथ के जीर्णोद्धार का प्रयास किया गया था। उस समय उत्तर प्रदेश की हेमतवती नन्दन बहुगुणा सरकार ने नारायण दत्त तिवारी कमेटी की सिफारिश पर बदरीनाथ के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ करने पर रोक लगा दी थी और जयश्री ट्रस्ट को भारी भरकम निर्माण सामग्री समेत वापस लौटना पड़ा था।

बदरीनाथ के हकहुकूक धारियों में से एक डिमरी पंचायत के अध्यक्ष आशुतोष डिमरी के अनुसार बदरीनाथ की तुलना तिरुपति से नहीं की जा सकती और ना ही इस हिमालयी तीर्थ का विकास तिरुपति की तर्ज पर किया जा सकता है।

डिमरी कहते हैं कि मास्टर प्लान से पहले बदरीनाथ के इतिहास और भूगोल को जानने की जरूरत है। सरकार को धर्मक्षेत्र के विशेषज्ञों से भी परामर्श करना चाहिए। बदरीनाथ एवलांच, भूस्खलन और भूकंप के खतरों की जद में है और वहां लगभग हर 4 या 5 साल बाद हिमखंड गिरने से भारी नुकसान होता रहता है।

बदरीनाथ मंदिर को हिमखंड स्खलन (एवलांच) से बचाने के लिए सिंचाई विभाग ने नब्बे के दशक में एवलांचरोधी सुरक्षा उपाय तो कर दिए मगर वे उपाय कितने कारगर हैं, उसकी अभी परीक्षा नहीं हुई है।

गोगोत्री मंदिर भी असुरक्षित

भागीरथी के उद्गम क्षेत्र में स्थित गंगोत्री मंदिर भी निरंतर खतरे झेलता जा रहा है। इस मंदिर पर भैंरोझाप नाला खतरा बना हुआ है। समुद्रतल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर का निर्माण उत्तराखंड पर कब्जा करने वाले नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने 19वीं सदी में किया था।

हिंदुओं की मान्यता है कि भगीरथ ने अपने पुरखों के उद्धार हेतु गंगा के पृथ्वी पर उतरने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी। इसरो द्वारा देश के चोटी के वैज्ञानिक संस्थानों की मदद से तैयार किए गये लैंड स्लाइड जोनेशन मैप के अनुसार गंगोत्री क्षेत्र में 97 वर्ग कि.मी. इलाका भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है, जिसमें से 14 वर्ग कि.मी. का इलाका अति संवेदनशील है।

गोमुख का भी 68 वर्ग कि.मी. क्षेत्र संवेदनशील बताया गया है। भू-गर्भ सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिक पी.वी.एस. रावत ने अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में गंगोत्री मंदिर के पूर्व की ओर स्थित भैंरोझाप नाले को मंदिर के अस्तित्व के लिए खतरा बताया है और चेताया है कि अगर इस नाले का शीघ्र इलाज नहीं किया गया तो ऊपर से गिरने वाले बडे़ बोल्डर कभी भी गंगोत्री मंदिर को धराशयी करने के साथ ही भारी जनहानि कर सकते हैं।

मार्च 2002 के तीसरे सप्ताह में नाले के रास्ते हिमखंडों एवं बोल्डरों के गिरने से मंदिर परिसर का पूर्वी हिस्सा क्षतिग्रसत हो गया था। यह नाला नीचे की ओर संकरा होने के साथ ही इसका ढलान अत्यधिक है। इसलिए ऊपर से गिरा बोल्डर मंदिर परिसर में तबाही मचा सकता है।

यमुनोत्री भी खतरे की जद में

यमुना के उद्गम स्थल यमुनोत्री मंदिर के सिरहाने खड़े कालिंदी पर्वत से वर्ष 2004 में हुए भूस्खलन से मंदिर परिसर के कई निर्माण क्षतिग्रस्त हुए तथा छह लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2007 में यमुनोत्री से आगे सप्तऋषि कुंड की ओर यमुना पर झील बनने से तबाही का खतरा मंडराया जो किसी तरह टल गया।

वर्ष 2010 से तो हर साल यमुना में उफान आने से मंदिर के निचले हिस्से में कटाव शुरू हो गया है। इस हादसे के मात्र एक महीने के अंदर ही कालिंदी फिर दरक गया और उसके मलवे ने यमुना का प्रवाह ही रोक दिया।  कालिंदी पर्वत यमुनोत्री मंदिर के लिए स्थाई खतरा बन गया है। सन् 2001 में यमुना नदी में बाढ़ आने से मंदिर का कुछ भाग बह गया था।

प्रकाशित तारीख : 2020-11-27 13:12:00

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