‘मन का संकल्प’

चाहता है ये मन कि मेरे कदम
अब बढते चले कर्त्तव्य पथ में हरदम
चाहे भरी हों काटों से राहें मगर
दृढ हो के चलेंगे अविरल फर्ज की डगर
न पिछे मुडेंगे ये कदम डगमगाके
किसिपल
बढते चलेंगे ये मंजिल कि ओर हरपल
ये कदम न अब किसि यार केआवाज में रुकेंगे
न अब किसि नाजनीन के प्यार के आगे झुकेंगे
मंजिल की ओर ये बढते चलेंगे
जमाने के हर खौफ से लडते चलेंगे
वक्त की हर ठोकरौं को अब सहते चलेंगे
गमों को भि खुशियां समझ अब हसते चलेंगे
वो भ्रम का तिलश्मी पर्दा आखाँ से अब हट चुकि है
वो मोह का गहरी धुंध मन से अब छंट चुकि है
 अब ह्रदय में न अनुराग न द्वेष किसी पर
वंधन नहि स्वतंत्र हैं कदम, मुक्त हैं कर
अब एक हि धुन कि लक्ष कि ओर चलते रहेंगे
करेंगे न कोइ गिले शिकवे न उफ! कहेंगे।
मन को निकालेंगे अब हर तृष्णा की सलाखों से
इस पार की तो भोगि अब उस पार की देखना है अंदरूनी आखाँ से
स्वयं को जानने की मौका है जीवन
इसे युंहि खोने न देंगे
दुःखों की भवंर से पार जाने की नौका है  स्वबोध इस पर अब चढेंगे
संकल्प यहि है मेरे मन की
इसे अब न तोडेंगे
मिल जाये जैसे भी भटकाव लुभावनी
पर जो राह चल चुके है उसे न छोडेंगे
ह्रदय में अपना हि दीपक जलाके निशा समान अज्ञानांधकार हटायेंगे

प्रकाशित तारीख : 2020-11-20 15:55:00

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