क्या सुप्रीम कोर्ट अनुसूचित जनजातियों को मिले अधिकारों को बोझ समझता है?

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चेबरोलू लीला प्रसाद और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ का हालिया फैसला हमें एक बार फिर यह दिखाता है कि भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची, जिस पर आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व है, को कितना कम समझा गया है.

राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के शिक्षकों को शत प्रतिशत आरक्षण देने के वर्ष 2000 के आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले को निरस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जिन तर्कों का सहारा लिया है, वह 5वीं अनुसूची की बुनियाद पर आघात है.

आज अगर शिक्षकों की नौकरी के लिए 100 फीसदी आरक्षण अनुमति योग्य नहीं है, तो आगे चलकर कोई आदिवासी जमीन के हस्तांतरण पर प्रतिबंध के खिलाफ भी दलील दे सकता है, या अविभाजित आंध्र प्रदेश के पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में गैर आदिवासियों को माइनिंग लीज (खनन पट्टे) देने पर प्रतिबंध लगानेवाले समता फैसले को भी पलट सकता है. आखिर ये दोनों ‘गैर आदिवासियों’ के साथ ‘भेदभाव’ करते हैं.

ऐसे मे जबकि दूसरे जिलों के गैर आदिवासी अनुसूचित क्षेत्रों में बड़ी संख्या में आकर बस रहे हैं, जिसका नतीजा स्पष्ट जनांकिकीय बदलाव के तौर पर सामने आ रहा है-  पांचवी अनुसूची के सुरक्षात्मक प्रावधानों को खत्म कर देने की मांग लगातार तेज होती जा रही है.

आंध्र प्रदेश के 2000 के सरकारी आदेश का मकसद आदिवासी इलाकों में शिक्षा को बढ़ावा देना और शिक्षकों के अक्सर गायब रहने की समस्या का समाधान खोजना था.

आदिवासी इलाकों की समस्याओं के बारे में थोड़ी-सी भी जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि गैर-आदिवासी शिक्षक सुदूर आदिवासी गांवों में जाना या वहां रहना नहीं चाहते हैं. दूसरी बड़ी समस्या भाषा की है.

निचले स्तर के सरकारी अमले समेत कई गैर आदिवासी लोगों ने आदिवासी इलाकों में कई साल रहने के बावजूद कभी आदिवासी भाषा सीखने की जरूरत महसूस नहीं की है. प्राथमिक स्तर पर गैर आदिवासी शिक्षकों और आदिवासी छात्रों के बीच एक भाषाई दीवार होती है, जिससे वे एक-दूसरे को समझ नहीं पाते. इससे बच्चों की बुनियादी शिक्षा को नुकसान पहुंचता है.

प्रकाशित तारीख : 2020-05-26 18:42:31

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