क्या कड़े निर्णय के चक्कर में देश को गर्त में पहुंचा दिया PM मोदी ने?

भारत के सामाजिक-राजनीतिक मानस में एक हीनग्रंथि है.  कड़े निर्णय लेने और भाषणबाज़ नेता का कांप्लेक्स इतना गहरा है कि यह भारत गांधी जैसे कम और साधारण बोलने वाले को ही नकार देता. नरेंद्र मोदी को जनता के बीच कड़े निर्णय लेने वाले नेता के रूप में स्थापित किया गया. मोदी ने भी खुद को कड़े निर्णय लेने वाले नेता के रूप में पेश किया. हर निर्णय को कड़ा बताया गया और ऐतिहासिक बताया गया. उन निर्णयों से पहले संवैधानिक नैतिकताओं को कुचल दिया गया. मुख्यमंत्रियों से पूछा जा सकता था कि क्या क्या करना है. उन्हें ही तालाबंदी की ख़बर नहीं थी. जनता के बीच उसे भव्य समारोह के आयोजन के साथ पेश किया गया ताकि कड़ा निर्णय चकाचौंध भी पैदा करे. 

नोटबंदी और तालाबंदी ये दो ऐसे निर्णय हैं जिन्हें कड़े निर्णय की श्रेणी में रखा गया. दोनों निर्णयों ने अर्थव्यवस्था को लंबे समय के लिए बर्बाद कर दिया. आर्थिक तबाही से त्रस्त लोग क्या यह सवाल पूछ पाएँगे कि जब आप तालाबंदी जैसे कड़े निर्णय लेने जा रहे थे तब आपकी मेज़ पर किस तरह के विकल्प और जानकारियाँ रखी गईं थीं. उस कमरे में किस प्रकार के एक्सपर्ट थे? उनका महामारी के विज्ञान को लेकर क्या अनुभव था? या इसकी जगह आपने दूसरी तैयारी की. टीवी पर साहसिक दिखने और कड़े भाषण की? यह जानना बेहद ज़रूरी है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने न तब और न आज कहा है कि इस महामारी से निपटने के लिए तालाबंदी करें. कोरोना एक महामारी थी. कड़े निर्णय लेने की क्षमता का प्रदर्शन करने का मौक़ा नहीं था. इसकी जगह वैज्ञानिक निर्णय लेने थे लेकिन उससे मतलब तो था नहीं. जबकि विदेश से आने वाले कोई पाँच लाख यात्री थे. बिना देश को बंद किए इन पाँच लाख लोगों की जाँच और संपर्कों का पता कर आराम से रोका जा सकता था. उसके बाद भी हालात बिगड़ते तो दूसरे तरह के उपाय किए जा सकते थे.यह सब कुछ नहीं किया गया. पूरे देश को ठप्प करने के बजाए पाँच लाख लोगों की ट्रेसिंग हो सकती थी. वे किस किस से मिले इसका डेटा बन सकता था और सबकी टेस्टिंग कर उन्हें अलग किया जा सकता था. 

 

प्रकाशित तारीख : 2020-09-02 19:57:09

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