निर्भया दुष्कर्म  फैसले से सीख

सात साल पहले निर्भया के साथ राजधानी दिल्ली के मुनिरका में हुए सामूहिक दुष्कर्म की घटना ने ना केवल देश को दहला दिया था बल्कि बर्बरता की भी ऐसी बानगी सामने रखी थी कि हर माता-पिता के मन में भय का स्याह अंधेरा छा गया था। इस अमानवीय और क्रूर मामले ने बेटियों की असुरक्षा से जुड़ीं दर्दनाक स्थितियां ही नहीं, महिलाओं के प्रति पलती कुत्सित सोच को भी सामने रखा था। निर्ममता की सारी सीमायें पार करने वाली सामूहिक दुष्कर्म की इस घटना ने आमजन को भीतर तक झकझोर दिया था। वैश्विक स्तर पर भी भारत को `रेप वैâपिटल’ और सबसे असुरक्षित देश तक कहा गया। यही वजह थी कि लंबे समय से न्याय का इंतजार कर रहे निर्भया के परिवार को ही नहीं पूरे देश को निर्भया के साथ बर्बरता करने वालों को फांसी पर लटकाने के निर्णय का इंतजार था। गौरतलब है कि निर्भया के दोषियों को फास्ट ट्रैक अदालत और दिल्ली हाईकोर्ट पहले ही फांसी की सजा सुना चुके हैं। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी। उच्चत्तम न्यायालय के आदेश के बाद दोषियों को दी गई फांसी की सजा कायम रही।

अब साल २०१२ में हुए निर्भया गैंगरेप के मामले में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों का डेथ वॉरंट जारी किया है। इन चारों को २२ जनवरी की सुबह ७ बजे फांसी दी जाएगी। निर्भया के माता-पिता ने पिछले महीने चारों दोषियों के खिलाफ डेथ वारंट जारी करने के लिए दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में याचिका दायर की थी। पटियाला हाउस कोर्ट का यह निर्णय आने के बाद निर्भया की मां ने कहा है कि मेरी बेटी को न्याय मिल गया। अपराधियों को फांसी की सजा मिलने से देश की महिलाओं को ताकत मिलेगी। इस फैसले से लोगों का न्याय व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा। दोषियों को फांसी देने से अपराधी डरेंगे। यकीनन महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के मोर्चे पर बिखरते भरोसे के इस दौर में यह फैसला एक उम्मीद जगाने वाला है।

दरअसल, बीते कुछ सालों में यौन हिंसा के मामले इतने बढ़ गए हैं कि इंसान का एक-दूजे से भरोसा ही डगमगा रहा है। कुंठा, कुत्सित मानसिकता और क्रूरता लिए ऐसे मामले पूरे सामाजिक-पारिवारिक माहौल और कानूनी लचरता के बिगड़ते हालातों की तस्वीर सामने रख रहे हैं। कम उम्र की बच्चियों के साथ हो रहीं बर्बरता की घटनाएं खत्म होते सामाजिक ताने-बाने का आईना दिखा रही हैं। कामकाजी महिलाओं के साथ हो रही हैवानियत आम परिवारों में डर और दहशत का कारण बन गई हैं। इस क्रूरतापूर्ण मामले के बाद भी ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें हद दर्जे की बर्बरता की गई है। यहां तक कि मासूम बच्चियों के साथ भी अमानवीयता की सीमा पार करनेवाले विकृत मामले भी सामने आए हैं। आज भी देश के हर हिस्से में बेटियों के माता-पिता असुरक्षा और किसी अनहोनी की आशंका के भय में ही जी रहे हैं। चिंतनीय है कि देश में हर २२ मिनट में एक नया यौन हिंसा का मामला सामने आता है। लगता है जैसे ना इंसानियत का मान बचा है, ना समाज की चिंता और ना ही कानून का डर। मन-मस्तिष्क को झिंझोड़कर रख देनेवाले निर्भया केस के बाद भी इन घटनाओं का होना जारी है। अगर कोई सकारात्मक बदलाव आया है तो यह कि अब आम लोगों का नजरिया कुछ हद तक बदला है। यौन हिंसा और दुष्कर्म जैसे विषयों पर आम घरों में संवाद होने लगा है। हर हाल में पीड़िता को दोष देने की सोच में कुछ परिवर्तन आया है लेकिन यह भी सच है कि दुष्टता और भय का यह अंधकार हर ओर पसरा है जो आए दिन किसी बेटी का जीवन और अस्मिता लील रहा है। ऐसे में निर्भया के दोषियों का फांसी के फंदे तक पहुंचना कुत्सित सोच रखने वालों के लिए सबक साबित होगा।

देश को झकझोर देनेवाले इस कांड में दोषियों को सजा दिलाने के लिए निर्भया के माता-पिता ने एक लंबी लड़ाई लड़ी है। इतना ही नहीं निर्भया केस के बाद लगा था मानो पूरा देश जाग गया है। इंसाफ की खातिर जनता का हुजूम सड़कों पर उतरा। देश की इस बेटी के लिए न्याय मांगने सड़कों पर निकली जनता की मांग के चलते महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों से निपटने के लिए कड़े कानून भी बनाए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस घटना को समाज का भरोसा तोड़ने वाली घटना बताते हुए ही फैसला सुनाया था। निर्भया के परिवार के दुःख को समझने की संवेदशीलता और बलात्कारियों की दरिंदगी के प्रति जिस आक्रोश के साथ जनता सड़कों पर उतरी, यह मामला हर महिला के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ गया था। दिसंबर २०१२ में हुई इस दिल दहलाने देने वाली घटना के बाद दिल्ली पुलिस के कई अफसरों ने पूरी गहनता से इसकी जांच करते हुए खुद को एक हफ्ते तक के लिए छोटे से कमरे में सीमित कर लिया था। इस घटना की जांच के लिए पुलिसवालों की एक `निर्भया एसआईटी’ नाम की टीम भी बनाई गई थी। निःसन्देह इस टीम ने जिस तत्परता से जांच करते हुए तथ्य जुटाकर चार्जशीट तैयार की, उसकी दोषियों को सजा दिलाने में अहम् भूमिका रही। माना जाता है कि दिल्ली पुलिस के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब अफसरों ने ऐसे अभूतपूर्व दबाव में अपनी जिम्मेदारी को बेहतरीन ढंग से निभाया। जिस केस की शुरुआत में कोई लीड न मिली हो, उसे चंद घंटों में सुलझाकर दोषियों को सजा दिलाने के लिए ऐतिहासिक चार्जशीट बनाने के लिए पूरी तत्परता और सजगता से काम किया गया।

कहना गलत नहीं होगा कि निर्भया के अभिभावकों का मनोबल, समाज के सहयोग और पुलिस की तत्परता ने इन अपराधियों को फांसी की सजा तक पहुंचाने में अहम् भूमिका निभाई है। विडंबना ही है दुनिया के सबसे युवा देश में आज बलात्कार महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे बड़ा अपराध बन चुका है। इन बिगड़ती परिस्थितियों में समाज में कानून का भय होना आवश्यक है इसीलिए न्यायिक लचरता और कानून से मिल रही मायूसी के माहौल में आया यह निर्णय देश की बेटियों को एक आश्वस्ति देनेवाला है। साथ ही इस बात को भी पुख्ता करता है कि दोषियों को सजा दिलवाने के लिए हम सबको साथ खड़ा होना होगा क्योंकि ऐसी घटनाओं का केवल प्रशासनिक और कानूनी पक्ष नहीं होता। ऐसे मामले पूरे समाज की संवेदनाओं और चिंताओं से जुड़े मामले हैं। गौर करनेवाली बात है कि निर्भया के केस में जनता की आवाज तो उठी लेकिन हैवानियत का शिकार बनी बेटी को दोष देने के लिए नहीं बल्कि दोषियों को सख्त सजा दिलवाने के लिए समाज के इस सकारात्मक सहयोग और संबल ने निर्भया के माता-पिता का भी मनोबल बढ़ाया।

इस दर्दनाक हादसे के बाद समर्थन में आगे आए समाज ने बेवजह अपमानित करने और अनगिनत सवाल उठाने की बजाय निर्भया के अभिभावकों को न्याय के लिए लड़ने की शक्ति दी। समग्र रूप से इस सहयोगी भाव ने दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया। यही वजह है कि यह फैसला कहीं ना कहीं पूरे समाज की पीड़ा और आक्रोश के लिए मरहम के समान है। न्याय की आस को मिलेगा बल देने वाला है।

प्रकाशित तारीख : 2020-01-11 23:41:39

प्रतिकृया दिनुहोस्